प्रतिशोध की भावना से न हो एफ़आइआर: सुप्रीम कोर्ट

रजनीश कपूर



एक पुरानी कहावत है, ‘जब घी सीधी उँगली से न निकले तो उँगली टेढ़ी करनी पड़ती है यानी जब कभी भी
आपका कोई काम आसानी से न हो रहा हो तो आप कोई दूसरा विकल्प अपनायें। परंतु प्रायः यह देखा गया है कि
जब भी किसी को किसी से दुश्मनी निकालनी होती है तो वे उँगली टेढ़ी करने में ही विश्वास रखते हैं।

यह बात अक्सर पुलिस की एफ़आइआर दर्ज कराने में देखी जाती है जब लोग बिना किसी ठोस कारण के दूसरों पर एफ़आइआर लिखवाने के लिए न्यायालय का रुख़ करते हैं। हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत ने इसी प्रचलन को देखते हुए एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है, जिससे देश भर की अदालतों में एफ़आइआर को लेकर फ़िज़ूल की याचिकाएँ आनी कम हो सकती हैं। जब भी किन्हीं दो पक्षों में कोई विवाद होता है, भले ही वो मामूली सा विवाद ही क्यों हो, एक पक्ष दूसरे पक्ष पर दबाव डालने की नियत से एफ़आइआर दर्ज कराने की कोशिश में रहता है। ऐसा होते ही दूसरा पक्ष दबाव के चलते समझौते पर आ सकता है।

प्रायः ऐसा मामूली विवादों से में ही होता है। इन विवादों को क़ानूनी भाषा में ‘सिविल डिस्प्यूट कहा जाता है। फिर वो चाहे चेक बाउंस का केस हो या फिर कोई अन्य मामूली सा विवाद। आम तौर पर सिविल डिस्प्यूट होने पर पुलिस आसानी से एफ़आइआर दर्ज नहीं करती। जिसके चलते एफ़आइआर दर्ज करवाने वाले को मजिस्ट्रेट का रुख़ करना पड़ता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3), 1973 के अनुसार यदि कोई भी पुलिस अधिकारी आपकी शिकायत पर एफ़आइआर दर्ज नहीं करता है तो संबंधित मजिस्ट्रेट के पास विशेषाधिकार हैं कि वो पुलिस को एफ़आइआर दर्ज करने के निर्देश दे सकते हैं।

आजकल इसी बात का चलन बढ़ने लग गया है और प्रायः हर दूसरी एफ़आइआर धारा 156(3) के तहत दर्ज हो रही है। इससे देश भर में विभिन्न अदालतों में दर्ज होने वाले मामलों में भी बढ़ौतरी हो रही है। साथ ही साथ पुलिस पर भी फ़िज़ूल के मामलों को लेकर काम का बोझ भी बढ़ रहा है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत की जाने वाली एफ़आइआर को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में बाबू वेंकटेश बनाम स्टेट ऑफ़ कर्नाटक के मामले में ये विस्तृत दिशा निर्देश दिये हैं। इस मामले के तहत दो पक्षों के बीच प्रॉपर्टी की ख़रीद फ़रोख़्त को लेकर एक सिविल डिस्प्यूट हुआ था। एक पक्ष का कहना था कि दूसरा पक्ष समझौते के तहत पैसा देने के बावजूद तय समय सीमा के भीतर प्रॉपर्टी की रजिस्ट्री नहीं करवा रहा। इस मामले को लेकर प्रथम पक्ष स्थानीय सिविल कोर्ट में पहुँचा और रजिस्ट्री करवाने की माँग को लेकर एक केस डाल दिया। दूसरे पक्ष ने भी सिविल कोर्ट में अपना जवाब दाखिल कर दिया।

क़रीब एक डेढ़ साल तक मामला चलता रहा और कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। इसी बीच प्रथम पक्ष ने सोचा कि क्यों न एक एफ़आइआर भी दाखिल कर दी जाए? इससे दूसरे पक्ष पर दबाव पड़ेगा और वो समझौता करने को राज़ी हो जाएगा। सिविल डिस्प्यूट होने के नाते पुलिस ने रिपोर्ट नहीं दर्ज की। लिहाज़ा प्रथम पक्ष ने मजिस्ट्रेट के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत याचिका दायर की। मजिस्ट्रेट ने धारा 156(3) के तहत विशेषाधिकार अधिकार के चलते प्रथम पक्ष की याचिका पर पुलिस को निर्देश दिये कि वो इस मामले में एफ़आइआर दर्ज करें। एफ़आइआर के विरोध में द्वितीय पक्ष ने उच्च न्यायालय का रुख़ किया। यदि आपके ख़िलाफ़ कभी कोई ग़लत एफ़आइआर दर्ज होती है तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482, 1973 के तहत आप उसे उच्च न्यायालय द्वारा रद्द करा सकते हैं। परंतु इस मामले में जब उच्च न्यायालय ने द्वितीय पक्ष को कोई राहत नहीं दी तो वे सुप्रीम कोर्ट पहुँचे। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के दौरान 1992 का स्टेट ऑफ़ हरियाणा बनाम चौ॰ भजन लाल का फ़ैसला संज्ञान में लिया। इस ऐतिहासिक फ़ैसले में एक महत्वपूर्ण बात यह बताई गई थी कि यदि किसी पक्ष को यह लगता है कि उसके ख़िलाफ़ कोई एफ़आइआर बदले या बदनामी की भावना से दर्ज कराई गई है तो उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत रद्द करवाया जा सकता है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही पाया गया। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत एफ़आइआर दर्ज करवाने से पहले शिकायतकर्ता को एक हलफ़नामा देना ज़रूरी होगा कि वो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154(1) के तहत पहले स्थानीय पुलिस के पास गया और सुनवाई न होने के कारण धारा 154(3) के तहत संबंधित उच्च पुलिस अधिकारियों के पास भी गया था। जब कहीं सुनवाई नहीं हुई तभी वह मजिस्ट्रेट के समक्ष आया है। यदि शिकायतकर्ता ऐसा हलफ़नामा नहीं देता तो धारा 156(3) के तहत उसकी अर्ज़ी मंज़ूर नहीं की जा सकती और झूठा हल्फ़नामा देने पर शिकायतकर्ता के ख़िलाफ़ कार्यवाही भी हो सकती है। इस ऐतिहासिक फ़ैसले से देश भर की जानता, अदालतों और पुलिस विभाग में एक सकारात्मक संदेश गया है। जिससे प्रतिशोध की भावना से व बिना प्राथमिक कार्यवाही किए बिना, की जाने वाली एफ़आइआर की संख्या भी घट सकेगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here