आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का विजयादशमी संबोधन संगठन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है क्योंकि इस अवसर पर उनका संबोधन संगठन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है।
नागपुर, ( Shah Times) । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने शनिवार को विजयादशमी के अवसर पर नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय में शस्त्र पूजा की।
पद्म भूषण और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व प्रमुख के. राधाकृष्णन, जो इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि भी हैं, आरएसएस प्रमुख के साथ देखे गए।
इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और इसरो के पूर्व प्रमुख के. सिवन भी मौजूद थे।
आरएसएस प्रमुख का विजयादशमी संबोधन संगठन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है क्योंकि इस अवसर पर उनका संबोधन संगठन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है।
नागपुर: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने शनिवार को विजयादशमी के अवसर पर नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय में शस्त्र पूजा की।
पद्म भूषण और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व प्रमुख के. राधाकृष्णन, जो इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि भी हैं, आरएसएस प्रमुख के साथ देखे गए।
इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और इसरो के पूर्व प्रमुख के. सिवन भी मौजूद थे।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का विजयादशमी संबोधन संगठन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है क्योंकि इस अवसर पर उनका संबोधन संगठन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत आज के कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि आदरणीय डॉ. कोपिल्लिल राधाकृष्णन जी, मंच पर उपस्थित विदर्भ प्रांत के मा. संघचालक, मा. सह संघचालक, नागपुर महानगर के मा. संघचालक, अन्य अधिकारी गण, नागरिक सज्जन, माता भगिनी तथा आत्मीय स्वयंसेवक बन्धु ।
श्री विजयादशमी युगाब्द 5126 के पुण्यपर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने कार्य के 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है।
पुण्य स्मरण
पिछले वर्ष इसी पर्व पर हमने महारानी दुर्गावती के तेजस्वी जीवन यज्ञ का उनकी जन्मजयंती के 500वें वर्ष के निमित्त स्मरण किया था। इस वर्ष पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर जी की 300वीं जन्मशती का वर्ष मनाया जा रहा है। देवी अहिल्याबाई एक कुशल राज्य प्रशासक, प्रजाहितदक्ष कर्तव्यपरायण शासक, धर्म संस्कृति व देश की अभिमानी, शीलसंपन्नता का उत्तम आदर्श तथा रण – नीति की उत्कृष्ट समझ रखने वाली राज्यकर्ता थी। अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी अद्भुत क्षमता का परिचय देते हुए घर को, राज्य को; स्वयं की अखिल भारतीय दृष्टि के कारण अपनी राज्य सीमा के बाहर भी, तीर्थ क्षेत्रों के जीर्णोद्धार व देवस्थानों के निर्माण द्वारा समाज के सामरस्य को तथा समाज में संस्कृति को उन्होंने जिस तरह सम्भाला वह आज के समय में भी मातृशक्ति सहित हम सब के लिए अनुकरणीय उदाहरण है। साथ ही यह भारत की मातृशक्ति के कर्तृत्व व नेतृत्व की दैदीप्यमान परंपरा का उज्ज्वल प्रतीक भी है।
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200वीं जन्म जयन्ती का भी यही वर्ष है। पराधीनता से मुक्त होकर काल के प्रवाह में आचार धर्म व सामाजिक रीति-रिवाजों में आयी विकृतियों को दूर कर, समाज को अपने मूल के शाश्वत मूल्यों पर खड़ा करने का प्रचंड उद्यम उन्होंने किया। भारत वर्ष के नवोत्थान की प्रेरक शक्तियों में उनका नाम प्रमुख है।
रामराज्य सदृश ऐसा वातावरण निर्माण होने के लिए प्रजा की गुणवत्ता व चारित्र्य तथा स्वधर्म पर दृढ़ता जैसी होना अनिवार्य है, वैसा संस्कार व दायित्वबोध सब में उत्पन्न करने वाला “सत्संग” अभियान परमपूज्य श्री श्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर के द्वारा प्रवर्तित किया गया था। आज के बांग्लादेश तथा उस समय के उत्तर बंगाल के पाबना में जन्मे श्री श्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर जी होमियोपैथी चिकित्सक थे तथा स्वयं की माता जी के द्वारा ही अध्यात्म साधना में दीक्षित थे। व्यक्तिगत समस्याओं को लेकर उनके सम्पर्क में आने वाले लोगों में सहज रूप से चरित्र विकास तथा सेवा भावना के विकास की प्रक्रिया ही ‘सत्संग’ बनी, जिसे ईस्वी सन् 1925 में धर्मार्थ संस्था के रूप में पंजीकृत किया गया। 2024 से 2025 ‘सत्संग’ के मुख्यालय देवघर (झारखंड) में उस कर्मधारा की भी शताब्दी मनने वाली है। सेवा, संस्कार तथा विकास के अनेक उपक्रमों को लेकर यह अभियान आगे बढ़ रहा है।
आगामी 15 नवम्बर से भगवान बिरसा मुंडा की जन्मजयंती का 150वां वर्ष प्रारंभ होगा। यह सार्धशती हमें, जनजातीय बंधुओं की गुलामी तथा शोषण से, स्वदेश पर विदेशी वर्चस्व से मुक्ति, अस्तित्व व अस्मिता की रक्षा एवं स्वधर्म रक्षा के लिए भगवान बिरसा मुंडा के द्वारा प्रवर्तित उलगुलान की प्रेरणा का स्मरण करा देगी। भगवान बिरसा मुंडा के तेजस्वी जीवनयज्ञ के कारण ही अपने जनजातीय बंधुओं के स्वाभिमान, विकास तथा राष्ट्रीय जीवन में योगदान के लिए एक सुदृढ़ आधार मिल गया है।
व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य
प्रामाणिकता से, नि:स्वार्थ भावना से देश, धर्म, संस्कृति व समाज के हित में जीवन लगा देने वाले ऐसी विभूतियों को हम इसलिए स्मरण करते हैं कि उन्होंने हम सब के हित में कार्य तो किया है ही, अपितु अपने स्वयं के जीवन से हमारे लिए अनुकरणीय जीवन व्यवहार का उत्तम उदाहरण उपस्थित किया है। अलग-अलग कालखंडों में, अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में कार्य करने वाले इन सबके जीवन व्यवहार की कुछ समान बातें थीं। निस्पृहता, निर्वैरता व निर्भयता उनका स्वभाव था। संघर्ष का कर्तव्य जब-जब उपस्थित हुआ, तब-तब पूर्ण शक्ति के साथ, आवश्यक कठोरता बरतते हुए उन्होंने उसे निभाया। परंतु वे कभी भी द्वेष या शत्रुता पालने वाले नहीं बने। उज्ज्वल शीलसंपन्नता उनके जीवन की पहचान थी। इस लिए उनकी उपस्थिति दुर्जनों के लिए धाक व सज्जनों को आश्वस्त करने वाली थी। हम सभी से आज इसी प्रकार के जीवन व्यवहार की अपेक्षा परिस्थिति कर रही है। परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल, व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की ऐसी दृढ़ता ही मांगल्य व सज्जनता की विजय के लिए शक्ति का आधार बनती है।
तो हमारे परस्परों के प्रति व्यवहार के भी कुछ कर्तव्य और उनके अनुशासन बन जाते हैं। कानून व संविधान भी ऐसा ही, एक सामाजिक अनुशासन है। समाज में सब लोग सुखपूर्वक, एकत्र रहें, उन्नति करते रहें, बिखरें नहीं, इसलिए बना हुआ अधिष्ठान व नियम है। हम भारत के लोगों ने अपने आप को यह संविधान से प्रतिबद्धता दी है। संविधान की प्रस्तावना के इस वाक्य के इस भाव को ध्यान में रखकर संविधान प्रदत्त कर्तव्यों का और कानून का योग्य निर्वहन सभी को करना होता है। छोटी बड़ी सभी बातों में इस नियम व्यवस्था का पालन हमें करना चाहिए। रहदारी के नियम होते हैं, विभिन्न प्रकार के कर समय पर भरने पड़ते हैं, स्वयं के व्यक्तिगत तथा सामाजिक अर्थायाम की शुद्धता व पारदर्शिता का अनुशासन भी होता है। ऐसे अनेक प्रकार के नियमों का कर्त्तव्य बुद्धि से पूर्ण निर्वहन होना चाहिए। नियम व व्यवस्था का पालन शब्दशः व भाव ध्यान में रखते हुए, (in letter and spirit) दोनों प्रकार से करना चाहिए। यह ठीक प्रकार से हो सके इसलिए विशेष कर अपने संविधान के चार प्रकरणों की जानकारी, यथा – संविधान की प्रस्तावना, मार्गदर्शक तत्व, नागरिक कर्तव्य व नागरिक अधिकार – का प्रबोधन सर्वत्र होते रहना चाहिए। परिवार से प्राप्त पारस्परिक व्यवहार का अनुशासन, परस्पर व्यवहार में मांगल्य, सद्भावना और भद्रता तथा सामाजिक व्यवहार में देशभक्ति व समाज के प्रति आत्मीयता के साथ कानून संविधान का निर्दोष पालन इन सबको मिलाकर व्यक्ति का व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य बनता है। देश की सुरक्षा, एकात्मता, अखण्डता व विकास साधने के लिए चारित्र्य के इन दो पहलुओं का त्रुटिविहीन व सम्पूर्ण होना अत्यंत महत्वपूर्ण बात है। हम सभी को व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की इस साधना में सजगता व सातत्य के साथ लगे रहना पड़ेगा।
स्व गौरव
इन सारी बातों का आचरण सतत होता रहे इसलिए जो प्रेरणा आवश्यक है, वह ‘स्व गौरव’ की प्रेरणा है। हम कौन हैं? हमारी परम्परा और हमारा गंतव्य क्या है? भारतवासियों के नाते हमारी सब विविधताओं के बावजूद हमें जो एक बड़ी, सर्व समावेशक, प्राचीन काल से चलती आयी हुई मानवीय पहचान मिली है, उसका स्पष्ट स्वरूप क्या है? इन सब बातों का ज्ञान होना, सबके लिए आवश्यक है। उस पहचान के उज्ज्वल गुणों को धारण करके, उसका गौरव मन और बुद्धि में स्थापित होता है, तो उसके आधार पर स्वाभिमान प्राप्त होता है। स्व-गौरव की प्रेरणा का बल ही जगत में हमारी उन्नति व स्वावलंबन का कारण बनने वाला व्यवहार उत्पन्न करता है। उसी को हम स्वदेशी का आचरण कहते हैं। राष्ट्रीय नीति में उसकी अभिव्यक्ति बहुत बड़ी मात्रा में, समाज में दैनंदिन जीवन में व्यक्तियों द्वारा होने वाले स्वदेशी व्यवहार पर निर्भर करती है। इसी को स्वदेशी का आचरण कहते हैं। जो घर में बनता है वो बाहर से नहीं लाना, देश का रोजगार चले, बढ़े इतना अपने देश में घर के बाहर से लाना। जो देश में बनता है वो बाहर से नहीं लाना। जो देश में बनता नहीं, उसके बिना काम चलाना। कोई जीवनावश्यक वस्तु है, जिसके बिना काम चलता नहीं वही केवल विदेश से लेना। घर के अन्दर भाषा, भूषा, भजन, भवन, भ्रमण और भोजन ये अपना हो, अपनी परम्परा का हो यह ध्यान रखना, यह सारांश में स्वदेशी व्यवहार है। सब क्षेत्रों में देश के स्वावलंबी बनने से स्वदेशी व्यवहार करना सरल होता है। इसलिए स्वतन्त्र देश की नीति में देश के स्वावलंबी बनने का परिणाम साध सकने वाली नीति जुड़नी चाहिए, साथ ही समाज ने प्रयत्न पूर्वक स्वदेशी व्यवहार को जीवन तथा स्वभाव का अंग बनाना चाहिए।
मन – वचन – कर्म का विवेक
राष्ट्रीय चारित्र्य के व्यवहार का एक और महत्वपूर्ण पहलू है, किसी भी प्रकार की अतिवादिता तथा अवैध पद्धति से अपने आप को दूर रखना। अपना देश विविधताओं से भरा हुआ देश है। उनको हम भेद नहीं मानते, न ही मानना चाहिए। हमारी विविधताएं सृष्टि की स्वाभाविक विशिष्टताएं है। इतने प्राचीन इतिहास वाले, विस्तीर्ण क्षेत्रफल वाले तथा विशाल जनसंख्या वाले देश में यह सभी विशिष्टताएं स्वाभाविक हैं। अपनी-अपनी विशिष्टता का गौरव तथा उनके प्रति अपनी-अपनी संवेदनशीलता भी स्वाभाविक है। इस विविधता के चलते समाज जीवन में व देश के संचालन में होने वाली सब बातें सदा सर्वदा सबके अनुकूल अथवा सबको प्रसन्न करने वाली होंगी ही, ऐसा नहीं होता। ये सारी बातें किसी एक समाज के द्वारा होती हैं, ऐसा नहीं है। इनकी प्रतिक्रिया में कानून और व्यवस्था को धत्ता बता कर अवैध या हिंसात्मक मार्ग से उपद्रव खड़े करना, समाज के किसी एक सम्पूर्ण वर्ग को उनका जिम्मेवार मानना, मन-वचन और कर्म से मर्यादा का उल्लंघन करते हुए चलना, यह देश के लिए – देश में किसी के लिए – न विहित है, न हितकारी। सहिष्णुता व सद्भावना भारत की परंपरा है। असहिष्णुता व दुर्भावना भारत विरोधी व मानव विरोधी दुर्गुण है। इसलिए क्षोभ कितना भी हो, ऐसे असंयम से बचना चाहिए तथा अपने लोगों को बचाना चाहिए। अपने मन, वाणी अथवा कृति से किसी की श्रद्धा का, श्रद्धास्पद स्थान, महापुरुष, ग्रंथ, अवतार, संत आदि का अपमान न हो, इस का ध्यान स्वयं के व्यवहार में रखना चाहिए। दुर्भाग्यवश अन्य किसी से ऐसा कुछ होने पर भी स्वयं पर नियंत्रण रखकर ही चलना चाहिए। सब बातों के परे, सब बातों के ऊपर महत्त्व समाज की एकात्मता, सद्भाव व सद्व्यवहार का है। यह किसी भी काल में, किसी भी राष्ट्र के लिए परम सत्य है, तथा मनुष्यों के सुखी अस्तित्व तथा सहजीवन का एकमात्र उपाय है।
संहत शक्ति तथा शुद्ध शील ही शान्ति व उन्नति का आधार
परन्तु, जैसे आधुनिक जगत की रीति है, सत्य को सत्य के अपने मूल्य पर जगत स्वीकार नहीं करता। जगत शक्ति को स्वीकार करता है। भारत वर्ष बड़ा होने से दुनिया में अंतरराष्ट्रीय व्यवहार में सद्भावना व संतुलन उत्पन्न होकर शान्ति और बंधुता की ओर विश्व बढ़ेगा, यह विश्व में सब राष्ट्र जानते हैं। फिर भी अपने संकुचित स्वार्थ और अहंकार या द्वेष को लेकर भारत वर्ष को एक मर्यादा में बांधकर रखने की शक्तिशाली देशों की चेष्टा को हम सब अनुभव करते हैं। भारत वर्ष की शक्ति जितनी बढ़ेगी उतनी ही भारत वर्ष की स्वीकार्यता रहेगी।
‘बलहीनों को नहीं पूछता, बलवानों को विश्व पूजता’
यह आज के जगत की रीति है। इसलिए उपरोक्त सद्भाव व संयमपूर्ण वातावरण की स्थापना के लिए सज्जनों को शक्ति संपन्न होना ही पड़ेगा। शक्ति जब शीलसंपन्न होकर आती है, तब वह शान्ति का आधार बनाती है। दुर्जन स्वार्थ के लिए एकत्र रहते हैं और सजग रहते हैं। उनका नियंत्रण सशक्त ही कर सकते हैं। सज्जन सबके प्रति सद्भाव रखते हैं, परन्तु एकत्र होना नहीं जानते। इसीलिए दुर्बल दिखाई देते हैं। उनको यह संगठित सामर्थ्य के निर्माण की कला सीखनी पड़ेगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू समाज की इसी शीलसंपन्न शक्ति साधना का नाम है। इस भाषण में इसके पूर्व वर्णित सद्व्यवहार के पांच बिंदु लेकर समाज में सज्जनों को जोड़ने का विचार संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं। भारत को बढ़ने देना न चाहने वाले, अपने स्वार्थ के लिए ऐसे भारत विरोधियों के साथ आने वाले तथा स्वभाव से जो बैर और द्वेष में ही आनंद मानते हैं, ऐसी शक्तियों से सुरक्षित रहकर देश को आगे बढ़ना है। इसलिए शील संपन्न व्यवहार के साथ शक्ति साधना भी महत्त्वपूर्ण है। इसलिए संघ की प्रार्थना में, कोई परास्त न कर सके ऐसी शक्ति और विश्व विनम्र हो ऐसा शील भगवान से मांगा गया है। विश्व के, मानवता के कल्याण का कोई काम अनुकूल परिस्थिति में भी इन दो गुणों के बिना संपन्न नहीं होता। नौ अहोरात्रि जागरण करते हुए सभी देवताओं ने अपनी अपनी शक्तियों को एक में संगठित किया, तब उस शील संपन्न संहत शक्ति से चिन्मयी जगदम्बा जागी, दुष्टों का निर्दलन हुआ, सज्जनों का परित्राण हुआ, विश्व का कल्याण हुआ। इसी विश्व मंगल साधना में मौन पुजारी के नाते संघ लगा है। हम सबको यही साधना अपनी पवित्र मातृभूमि को परमवैभवसंपन्न बनाने की शक्ति व सफलता प्रदान करेगी। इसी साधना से विश्व के सभी राष्ट्र अपना- अपना उत्कर्ष साधकर नए, सुख- शान्ति व सद्भावना युक्त विश्व को बनाने में अपना योगदान प्रदान करेंगे। उस साधना में आप सभी सादर निमंत्रित है।
हिन्दू भूमि का कण कण हो अब, शक्ति का अवतार उठे,
जल थल से अम्बर से फिर, हिन्दू की जय जय कार उठे
जग जननी का जयकार उठे
|| भारत माता की जय ||