लीजेंडरी बॉलीवुड एक्टर राजकुमार साल 1965 में प्रदर्शित बी.आर.चोपड़ा की फिल्म ‘वक्त’ में अपनी दमदार अदाकारी और बेहतरीन डायलॉग डिलीवरी से वह एक बार फिर दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब रहे।
मुंबई, (शाह टाइम्स) । डायलॉग डिलीवरी के बेताज बादशाह कुलभूषण पंडित उर्फ राजकुमार का नाम बॉलीवुड की आकाश गंगा में ऐसे धुव्रतारे की तरह है,जिन्होंने अपने दमदार अदाकारी से दर्शकों के दिलों पर राज किया।
राजकुमार का जन्म 8 अक्टूबर 1926 को पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में एक मध्यम वर्गीय कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद राजकुमार ने मुंबई के माहिम पुलिस स्टेशन में सब-इंस्पेक्टर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। मुंबई के जिस पुलिस स्टेशन में राजकुमार काम कर रहे थे, वहां अक्सर फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग आते-जाते रहते थे।
एक बार एक फिल्म प्रोड्यूसर किसी जरूरी काम से थाने में आया हुआ था और वह राजकुमार के बात करने के अंदाज से काफी मुतासिर हुआ हुआ और उसने राजकुमार को अपनी फिल्म ‘शाही बाजार’ में बतौर अभिनेता काम करने का प्रस्ताव दिया।
पहले ही कांस्टेबल की बात सुनकर राजकुमार अभिनेता बनने का मन बना चुके थे। इसलिए उन्होंने तुरंत सब-इंस्पेक्टर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और निर्माता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शाही बाजार को बनने में काफी वक्त लग गया और राजकुमार के लिए अपना गुजारा करना मुश्किल हो गया। इसलिए उन्होंने साल 1952 में रिलीज हुई फिल्म ‘रंगीली’ में एक छोटी सी भूमिका स्वीकार कर ली।
यह फिल्म सिनेमा घरों में कब लगी और कब चली गयी। यह पता ही नहीं चला। इस बीच उनकी फिल्म ‘शाही बाजार’ भी प्रदर्शित हुई। जो बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी।शाही बाजार की असफलता के बाद राजकुमार के तमाम रिश्तेदार यह कहने लगे कि तुम्हारा चेहरा फिल्म के लिये उपयुक्त नहीं है। और कुछ लोग कहने लगे कि तुम खलनायक बन सकते हो।
साल 1952 से 1957 तक राजकुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे।‘रंगीली’ के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली राजकुमार उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने ‘अनमोल’, ‘सहारा’, ‘अवसर’, ‘घमंड’, ‘नीलमणि’ और ‘कृष्ण सुदामा’ जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई।महबूब खान की वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘मदर इंडिया’ में राजकुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फिल्म पूरी तरह अभिनेत्री नर्गिस पर केन्द्रित थी। फिर भी वह अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और फिल्म की सफलता के बाद वह अभिनेता के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए।
साल 1959 में प्रदर्शित फिल्म ‘पैगाम’ में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन राज कुमार यहां भी अपनी सशक्त भूमिका के जरिये दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद ‘दिल अपना’ और ‘प्रीत पराई’, ‘घराना’, ‘गोदान’, ‘दिल एक मंदिर’ और ‘दूज का चांद’ जैसी फिल्मों मे मिली कामयाबी के जरिये वह दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच गए जहां वह अपनी भूमिकाएं स्वयं चुन सकते थे।वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘काजल’ की जबरदस्त कामयाबी के बाद राजकुमार ने अभिनेता के रूप में अपनी अलग पहचान बना ली।
बी.आर .चोपड़ा की 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘वक्त’ में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से दर्शक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। फिल्म में राजकुमार का बोला गया एक संवाद ‘चिनाई सेठ, जिनके घर शीशे के बने होते हैं, वो दूसरों के घर पे पत्थर नहीं फेंका करते’ या ‘चिनाई सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं, हाथ कट जाये तो खून निकल आता है’ दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए।‘वक्त’ की कामयाबी से राजकुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। इसके बाद उन्होंने ‘हमराज’, ‘नीलकमल’, ‘मेरे हुजूर’, ‘हीर रांझा’ और ‘पाकीजा’ में रूमानी भूमिकाएं स्वीकार कीं. जो उनके फिल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थीं।कमाल अमरोही की फिल्म ‘पाकीजा’ पूरी तरह से मीना कुमारी पर केन्द्रित फिल्म थी। इसके बावजूद राजकुमार ने अपने सशक्त अभिनय के दम पर दर्शकों की वाहवाही लूटी।
पाकीजा में उनका एक संवाद ‘आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारियेगा, मैले हो जायेगें’ इस कदर लोकप्रिय हुआ कि लोग गाहे बगाहे उनके संवाद की नकल करने लगे।
साल 1978 में प्रदर्शित फिल्म ‘कर्मयोगी’ में राज कुमार के अभिनय और विविधता के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले। इस फिल्म में उन्होंने दो अलग-अलग भूमिकाओं में अपने अभिनय की छाप छोड़ी।अभिनय में एकरूपता से बचने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिए उन्होंने स्वयं को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया।
इस क्रम में 1980 में प्रदर्शित फिल्म ‘बुलंदी’ में वह चरित्र भूमिका निभाने से भी नहीं हिचके। इस फिल्म में भी उन्होंने दर्शकों का मन मोहे रखा।वर्ष 1991 में प्रदर्शित फिल्म ‘सौदागर’ में राजकुमार के अभिनय के नए आयाम देखने को मिले। सुभाष घई की निर्मित इस फिल्म में राजकुमार 1959 में प्रदर्शित फिल्म ‘पैगाम’ के बाद दूसरी बार दिलीप कुमार के सामने थे और अभिनय की दुनिया के इन दोनों महारथियों का टकराव देखने लायक था।नब्बे के दशक में राजकुमार ने फिल्मों मे काम करना काफी कम कर दिया। इस दौरान उनकी ‘तिरंगा’, ‘पुलिस’ और ‘मुजिरम’इंसानियत के देवता, बेताज बादशाह, जवाब, गॉड और गन जैसी फिल्में प्रदर्शित हुयीं।
नितांत अकेले रहने वाले राजकुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफी करीब है। इसीलिए अपने पुत्र पुरू राजकुमार को उन्होंने अपने पास बुला लिया और कहा ‘‘देखो मौत और जिंदगी इंसान का निजी मामला होता है। मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनंद के अलावा और किसी को नहीं बताना। मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फिल्म उद्योग को सूचित करना।’अपने संजीदा अभिनय से लगभग चार दशक तक दर्शकों के दिल पर राज करने वाले महान अभिनेता राजकुमार 03 जुलाई 1996 को इस दुनिया को अलविदा कह गये।