नई दिल्ली,(Shah Times)। देश के मौजूदा राजनीतिक हालात में मुसलमानों (Muslims) को सरकार के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों की उनके विकास के लिए ठोस कदम उठाने पर बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है। लिहाजा मुसलमानों को अपने शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक हालात बदलने के लिए खुद पहल करनी होगी। यह राय दिल्ली में मुसलमानों की स्थिति पर हाल ही में हुए एक अध्ययन की रिपोर्ट जारी करने के बाद पत्रकारों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच हुई चर्चा के दौरान सामने आई।
इस रिपोर्ट पर बोलते हुए जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार और डिजिटल प्लेटफॉर्म ‘सत्य हिंदी’ के संपादक आशुतोष ने 22 कहा कि दिल्ली में शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में मुसलमान सबसे फिसड्डी हैं। उन्होंने कहा कि यह रिपोर्ट ‘सच्चर कमेटी’ और ‘रंगनाथ मिश्रा कमीशन’ की रिपोर्ट के बाद के बाद मुसलमानों की स्थिति पर सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। दिल्ली में मुसलमानों की बधाई के लिए कहीं न कहीं सरकारों के साथ-साथ मुस्लिम समाज भी जिम्मेदार है। उन्होंने कहा कि 2014 के बाद देश में जो हालात बने हैं उनमें किसी भी सरकार से मुसलमानों के लिए कोई भी ठोस काम करने की उम्मीद ना के बराबर है। लिहाजा मुसलमान अपने बीच से शिक्षा और समाज सुधार के आंदोलन चलाएं। उड़े कहा कि मुसलमान सरकारों के भरोसे बिल्कुल ना बैठे लड़की सामाजिक बदलाव के लिए खुद से पहल करके आगे बढ़े।
हालांकि कई अखबारों में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश आशुतोष की इस बात से सहमत नहीं दिखे कि मुसलमानों को अपने बलबूते ही सब कुछ कर लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि लोकतांत्रिक समाज और देश में सरकार की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। इसलिए मुसलमानों को सामाजिक आंदोलनों के जरिए सरकार को भी मजबूर करना चाहिए कि वह संविधान में दिए गए उनके अधिकार उन्हें दें। उर्मिलेश ने कहा कि देश में राजनीतिक लोकतंत्र तो है लेकिन सामाजिक लोकतंत्र की कमी है। सामाजिक लोकतंत्र समाज के अंदर प्रयास करने से ही आएगा। रिपोर्ट में दिल्ली के मुसलमानों की बदहाली के आंकड़ों पर हैरानी जताते हुए उन्होंने कहा कि मुसलमानों को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत है। पुणे कहां किस मुसलमानों के बीच ऐसे सामाजिक कार्यों को किए जाने की जरूरत है जो सिर्फ मुसलमानों के लिए ना हो बल्कि देश के सभी समाजों के लिए हों।
इस कार्यक्रम में शाह टाइम्स के दिल्ली संस्करण के सारे संपादक और वरिष्ठ पत्रकार युसूफ अंसारी ने राज्य मुसलमानों को अपने सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विकास के लिए इस सोच के डंडे को बदलने की जरूरत है देश की मौजूदा राजनीतिक हालात में मुसलमानों की सोच ठहरे हुए पानी की तरह हो गई है। इस सोच में रवानी लाने की जरूरत है। उन्होंने कुरान की सूरह अल राद की आयत नंबर 11 का हवाला दिया। कहा गया है, ‘अल्लाह कभी उस कौम की हालत नहीं बदलता जिसे खुद अपनी हालत के बदलने का एहसास ना हो।’ इसी बात को अल्लामा इक़बाल ने अपने एक शेर कहा है, ‘खुदा ने भी कभी उस क़ौम की हालत नहीं बदली, ना हो एहसास जिसे खुद अपनी हालत के बदलने का।’ उन्होंने सवाल उठाया कि अगर मुसलमानों के किस्से की हालत दलितों से भी बदतर है तो वह कौन से मुसलमान है जो ईद से 10 दिन पहले से रात-रात भर शॉपिंग करते हैं। इस पर भी मुसलमानों को ग़ौर करने की ज़रूरत है।
इस मौके पर जाने माने मुस्लिम बुद्धिजीवी और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार क़मर आग़ा ने कहा कि मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या कम शिक्षा नहीं बल्कि रोजगार की कमी है। देश के मौजूदा हालात में उनके लिए रोजगार के मौके कम हो रहे हैं। लिहाजा सामाजिक स्तर पर एक अभियान के तौर पर मुसलमानों को रोजगार मुहैया कराने की कोशिश होनी चाहिए। उनके रोजगार ठीक हो जाएंगे तो वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में भी सक्षम हो जाएंगे। इस पहलू पर सबसे ज्यादा गौर करने की जरूरत है। उनकी इस बात से सभी ने सहमति जताई।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हैं पूर्व नौकरशाह ख्वाजा शाहिद ने मुसलमानों की स्थिति पर आए आंकड़ों पर कहा कि जहां मुसलमानों में 15 फ़ीसदी पूरी तरह अनपढ़ है वहीं 85 फिर भी पढ़े लिखे भी हैं। यह संतोष की बात है कि मुसलमान और हिंदू समाज के बीच शैक्षिक स्तर पर अंतर बहुत कम है। उन्होंने कहा कि मुसलमानों को विक्टिम कार्ड खेलने के बजाए सकारात्मक सोच और अपने सामाजिक हालात सुधारने की बेहतर प्लानिंग के साथ आगे बढ़ना चाहिए। इस कार्यक्रम में देश के जाने-माने पत्रकारों के साथ साथ कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने भी शिरकत की।
कार्यक्रम के आयोजक कलीम उल हाफीज ने मुसलमानों की स्थिति पर अध्ययन कराने की वजहों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट में सभी आंकड़े सरकारी स्रोतों से लिए गए हैं। उन्होंने बताया कि इस रिपोर्ट का दूसरा भाग भी जल्द ही आएगा। दूसरे हिस्से में वो आंकड़े होंगे जो रिसर्च टीम ने ग्राउंड जीरो पर जाकर जुटाए हैं। उन्होंने राहत इंदौरी के शेर से अपनी बात खत्म की ‘हमसफर से निकलेगा न हमनशीं से निकलेगा
हमारे पांव का कांटा हमीं से निकलेगा।’