
गर्भ जल की निकासी के ख़तरनाक परिणाम होंगे। नेचर की डिक्शनरी में क्षमा नाम का कोई शब्द है ही नहीं। भारत में शहर तो बस रहे हैं लेकिन जमीन के भीतर जल पहुंचाने की किसी को कोई चिंता नहीं है।
नई दिल्ली,पवन सिंह (Shah Times)।भू-गर्भ जल की निकासी के ख़तरनाक परिणाम होंगे। नेचर की डिक्शनरी में क्षमा नाम का कोई शब्द है ही नहीं। भारत में शहर तो बस रहे हैं लेकिन जमीन के भीतर जल पहुंचाने की किसी को कोई चिंता नहीं है। भारत सहित कई देशों में भूगर्भीय जल का मसला इतना विकराल हो चुका है कि वहां की सरकारें अब राजधानी तक स्थानांतरित करने की योजना बनाने लगी हैं। चीन और ईरान जैसे देशों में बीते कुछ वर्षों में भूमि धंसने की घटनाएं आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है।भूजल का रिचार्ज होना एक स्वाभाविक व प्राकृतिक प्रक्रिया है। जितना जल हम पृथ्वी से निकाल रहे हैं यदि हम उसके बराबर जल की मात्रा वापस भूमि में भेज दें और जल का उपयोग सतर्कता से करें तो भूस्खलन और जमीन धंसने की भयावह घटनाओं को रोक सकते हैं। भारत में करीबक्ष433 अरब क्यूबिक मीटर भूजल का प्रतिवर्ष दोहन हो रहा है। यह एक बहुत ही गंभीर बात है…यदि ऐसे ही चलता रहा तो पूरे भारत में सिंचाई तो दूर की बात है पीने के पानी की राशनिंग होने लगेगी और यह स्थिति बहुत दूर नहीं है।
ऐसी गंभीर स्थिति में मैनेज्ड एकुइफेर रिचार्ज यानी MAR ही एक मात्र संभावित युक्ति है। यह भूजल स्तर को बहाल करने की कृत्रिम विधि है, जिसे अक्सर हाइड्रोलॉजिकल बैंकिंग की प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। एक और बड़ी समस्या सामने खड़ी दिखाई दे रही है। वह ये है कि एक बार यदि पृथ्वी अपने नीचे के जल को धारण करने की क्षमता को खो देती है और जमीन धंस जाती है, तब ऐसी स्थिति में जलभृतों की क्षमताओं को वापस लाना संभव नहीं है।” प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक श्री ग्रेवाल के अनुसार यह पृथ्वी कोई फैलने-सिकुड़ने वाली चीज नहीं है बल्कि यह स्थिर है। हालात यह हो चले हैं कि नर्मदा नदी के किनारे के बोर तक सूखने लगे हैं।
समूचे विश्व में जहां भूजल स्तर गिर रहा है। इससे जमीन की भीतरी परत में जहां पानी एकत्र होता है, वह सिकुड़ रही हैं जिससे जमीन बैठ रही है। भूजल के अत्यधिक दोहन से जमीन के धंसने का एक बड़ा खतरा मंडराने लगा है। ऊंची-ऊंची बिल्डिंग्स के नीचे से बोर द्वारा पानी तो निकाला जा रहा है लेकिन उसके नीचे पानी डाला नहीं जा रहा है। ऐसे में सबसे सुरक्षित और मजबूत कही जाने वाली अट्टालिकाएं भी कब जमीन में बैठ जाएगी कुछ नहीं कहा जा सकता है।लगातार दोहन से जमीन की भीतरी परत जिसे एकुइफेर कहते हैं, की धारण क्षमता नष्ट हो जाती है। भारत का उत्तरी क्षेत्र के उपजाऊ मैदानी इलाके में खतरा तेजी से बढ़ रहा है। यहां की जमीन के नीचे का जल स्तर तेजी से खत्म हो रहा है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) के अनुसार, पिछले दशक में उत्तरी भारत का भू-जल स्तर 8.8 करोड़ एकड़-फिट कम हो चुका है। यह एक गंभीर एलार्मिंग सिचुएशन है इसके बावजूद न तो सरकारें सबक ले रही हैं और न जनता। भूमिगत जल में आयी कमी के कारण जमीन की ऊपरी सतह संकुचित हो रही है। इससे जलभृतों यानी कि एकुइफेर में ऐसे खतरनाक बदलाव हो रहे हैं, जिन्हें नहीं होना चाहिए था। सबसे खराब बात यह है कि एक बार अगर जलभृत एरिया नष्ट हुआ तो नेचर उसे दोबारा नहीं बनायेगी। जलभृत जमीन का वह हिस्सा है जहां भूजल एकत्र होता है। जैसे-जैसे इन जलभृतो से पानी गायब होता जायेगा, वैसे-वैसे भूमि या तो अचानक या फिर आहिस्ता-आहिस्ता नीचे बैठती जाएगी। यह उन बड़े शहरों के लिए एक एलार्मिंग सिचुएशन है जहां बड़ी-अट्टालिकाएं खड़ी हैं। ये बिना भूमिगत जल के कब चरमराकर बैठ जायेंगी कुछ नहीं कहा जा सकता। भूजल जमीन के भीतर रिपेयरिंग का काम करता है। वह मिट्टी के छिद्रों या चट्टानों की दरारों के बीच बची खाली जगहों को भर देता है। पृथ्वी के भीतर जमा पानी पर जब भीतर से दबाव पड़ता है तो ये जल पृथ्वी के ऊपर की ओर आता है।
कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के शोधकर्ता और सिविल इंजीनियर शगुन गर्ग के अनुसार जब भूजल को अत्यधिक दोहन होता है वह भूमि की भीतरी प्राकृतिक संरचना को डिस्टर्ब कर देता है और यहीं से बड़े खतरे पैदा होते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है अत्यधिक भूजल दोहन के मामले में भारत विश्व में पहले स्थान पर है। भारत में उत्तरी गंगा के मैदानी क्षेत्रों में भूजल का दोहन बहुत ही खतरनाक तरीके से हो रहा है जिससे यहां की जमीन की सतह का आकार तेजी से बदल रहा है। इसके गंभीर परिणाम देखने को मिलने लगे हैं। दिल्ली-एनसीआर अभी से गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। इस क्षेत्र में जमीन तेजी से धंस रही है। दिल्ली के कुछ हिस्सों जैसे कि कापसखेड़ा, जो कि इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास है वहां का अध्ययन करते हुए भू-वैज्ञानिक शगुन गर्ग ने देखा कि 2014-15 के दौरान यहां भूमि क्षरण की दर 11 सेंटीमीटर प्रति वर्ष थी जो दो वर्षों में ही इसकी क्षरण दर बढ़कर 17 सेंटीमीटर प्रति वर्ष से भी ज्यादा हो गयी थी। अन्य भू-गर्भ शोधकर्ताओं ने पंजाब से लेकर पश्चिमी बंगाल और गुजरात तक गंगा के क्षेत्रों का अध्ययन किया और उन्हें भी जमीन के धंसने के जो सबूत मिले हैं, वो भयावह वक्त की ओर इशारा कर रहे हैं।भारत के जिन राज्यों में धरती पतले और महीन मिट्टी के कणों से निर्मित है मसलन गंगा के उपजाऊ मैदान में पाई जाने वाली जलोढ़़ मिट्टी, ऐसी जगहों पर कठोर चट्टानों की तुलना में जमीन के धंसने की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं।
जल विज्ञानी विवेक ग्रेवाल ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज ऑफ़ इंडिया नामक ट्विटर माइक्रोब्लॉग चलाते हैं जिसमें वे देश के भूजल से जुड़े मसलों पर चर्चा करते हैं और वे मानते हैं कि भूमि का क्षरण पूरी तरह से मानव जनित गतिविधियों की देन है। टेक्टोनिक प्लेटों की हलचल भी भूमि क्षरण का एक मुख्य कारण हो सकता है, जोकि लाखों वर्ष में कभी एक बार होती है। वह कहते हैं, “जमीन का एक सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से खिसकने की गति जियोलॉजिकल समय के अनुरूप नहीं है बल्कि यह मानव जनित है।” गर्ग आगे कहते हैं, “80% से अधिक भूमि का क्षरण, भूजल के खत्म होने से होता है।” छत्तीसगढ़ में 9वीं शताब्दी का एक सुरंग टीला मंदिर सीढ़ियों में धंसा हुआ जो कि मिट्टी के धंसने का परिणाम माना जाता है।
अगर यही हाल रहा तो 2040 तक दुनिया के कुल सतह की करीब 8% भूमि का क्षरण हो सकता है और इससे दुनिया के प्रमुख शहरों में रहने वाले 21% यानी कि 120 करोड़ लोग से प्रभावित होंगे। भूमि क्षरण का सबसे अधिक प्रभाव एशिया में होगा। एक अनुमान के मुताबिक एशियाई आबादी का 86 % हिस्सा भूमि क्षरण से प्रभावित होगा। जिससे कि लगभग 8.17 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुकसान होगा। वैज्ञानिक ग्रेवाल के अनुसार अमेरिका के कैलिफोर्निया में भूमि क्षरण का सबसे गंभीर मामला आया था। यहां पर 1930 के दशक से मुख्य रूप से कृषि कार्यों के चलते भूजल में गिरावट को देखा गया अब अमेरिकी सरकार और जनता भूमिगत जल के संरक्षण को लेकर बेहद सतर्क और संवेदनशील हो चुकी है।
इंडोनेशिया की राजधानी, जकार्ता में जमीन 2.5 मीटर धंस चुकी है और यह जलीई दोहन का नतीजा था।हमारे पूर्वजों ने जो ऐतिहासिक इमारतें बनाईं उन्होंने नदियों के किनारों को ज्यादा महत्व दिया। लखनऊ का इमामबाड़ा, छतर मंजिल, हुसैनाबाद टावर हो या ताजमहल, प्रयागराज और आगरा का किला या दिल्ली का लाल किला… राजा-महाराजाओं के किले के नीचे चारों ओर गहरी खाईं सुरक्षा व जल संरक्षण को ध्यान में रखकर बनाई गईं। वर्तमान में अगर हम अकेले लखनऊ को देखें तो यहां मात्र दशमलव वन प्रतिशत घरों में ही रेन वाटर हार्वेस्टिंग की गई होगी, वह भी जो नेचर को लेकर बहुत ही संवेदनशील होगा। समय हाथ से निकल रहा है शेष मर्जी आपकी। यदि आप चाहते हैं कि आपके आलीशान मकान या टावर के नीचे की जमीन चरमराये नहीं तो अभी भी वक्त है रेनो वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के बारे में सोच लें।