सहारनपुर में 210 वर्ष पूर्व बना बड़ा इमामबारगाह खालापार की अलग है शान आज भी

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सहारनपुर नगर के मोहल्ला जाफर नवाज स्थित बड़ा इमामबारगाह  खालापार के नाम से मशहूर है असगर अली खां पश्चिम उत्तर प्रदेश की एकमात्र ऐसी इमामबारगाह है, जो अपने निर्माण के करीब दो सौ वर्ष बाद भी न केवल पुख्ता, मजबूत और खूबसूरत हालत में है

~ज़िया अब्बास जै़दी

हजरत इमाम हुसैन की शहादत आज भी शिया समुदाय के साथ-साथ सभी वर्ग के लोगों को इस्लाम और इंसानियत पर कुरबान होने का संदेश दे रही है। मोहर्रम माह के दसवें दिन जहां करबला में ताजिये दफन किए जाते हैं वहीं दहकते अंगारों पर चलकर मातम मनाना आज भी धर्मिक अक़ीदा की मिसाल बना है।

सहारनपुर नगर के मोहल्ला जाफर नवाज स्थित बड़ा इमामबारगाह  खालापार के नाम से मशहूर है असगर अली खां पश्चिम उत्तर प्रदेश की एकमात्र ऐसी इमामबारगाह है, जो अपने निर्माण के करीब दो सौ वर्ष बाद भी न केवल पुख्ता, मजबूत और खूबसूरत हालत में है बल्कि यहां एक समय में ही लगभग दो हजार से अधिक व्यक्ति इकट्ठा होकर मातम भी कर सकते हैं।सहारनपुर नगर क्षेत्र में इसके अलावा दो अन्य इमामबारगाह मोहल्ला अंसारियान व कायस्थान में स्थित हैं। 

बड़ा इमामबारगाह के प्रबंधक/मुतवल्ली डा. सैयद अथर अब्बास जै़दी के मुताबिक बड़ा इमामबारगाह के निर्माण की शुरुआत नवाब असगर अली ने 1808 में कराई थी और निर्माण के दौरान ही उनकी मौत हो गई। बाद में उनकी बेगम जमायत तुन निशा की देखरेख में निर्माण पूरा हुआ। बेगम ने आधी जायदाद अपने पति के नाम पर बने इमाम बारगाह के नाम कर दी थी और शेष अपने रिश्तेदारों को सौंप दी थी।

उन्होंने बताया कि पिछले पौने दो सौ वर्षों से इसी इमामबारगाह से मोहर्रम की सातवीं व दसवीं तारीख का जुलूस और सभी दस दिन मजलिस होती हैं। इस इमामबारगाह की पहचान लखनऊ के बाद दूसरे नंबर पर है। करबला के मैदान में हुई हजरत इमाम हुसैन की शहादत पर मातम मनाने वालों के लिए यह इमाम बारगाह आज भी अक़ीदा का गवाह बनी है।

 सहारनपुर नगर क्षेत्र में शिया समुदाय की संख्या लगभग 25 से 30 हजार के बीच है और मोहर्रम के पहले दिन से ही इस समुदाय के लोग हजरत इमाम हुसैन की शहादत को लेकर अलग-अलग तरीके से मातम मनाते हैं। मोहर्रम के अंतिम दसवें दिन नई बस्ती स्थित करबला में ताजिए दपफनाए जाने से पूर्व न केवल युवाओं से लेकर बच्चे व बूढे़ तक हजरत इमाम हुसैन की याद में अपने शरीर को जंजीरों से बंध्ी छुरियों से पीट-पीटकर लहूलुहान कर डालते हैं। 

शिया समाज के वरिष्ठ नागरिक अख्तर अली जै़दी, जै़गम अब्बास जै़दी (पुच्ची), कल्बे अब्बास, मोहम्मद अब्बास जै़दी एडवोकेट, अजहर काजमी, अंजर अब्बास काजमी, सकलेन रजा जै़दी, प्यारे मियां, पिफरोज हैदर, इशरत हुसैन जै़दी  व सैयद तौसीफ हैदर ,प्रिंस मेडिकल स्टोर मीरकोट निवासी हुसैन अब्बास, मोहल्ला गालिब रसूल चौक निवासी सैयद अरशद अजीज के मुताबिक नगर क्षेत्रा के तीनों इमामबारगाहों में नोहाख्वानी कर सभी लोग 9 मोहर्रम की रात अंसारियान स्थित इमामबारगाह में पहुंचते हैं और यहां दहकते अंगारों पर चलते हुए मातम मनाते हैं। यह हजरत इमाम हुसैन की शहादत का एक अद्भुत नमूना ही है कि न तो जंजीरों से लहूलुहान हुए शरीर पर कोई जख्म रहता है और न पांव में अंगारों से जलने का कोई निशान। समुदाय के बड़े बुजुर्गों ने बताया कि मातम के बाद लहूलुहान शरीर पर गुलाब का पानी लगाते ही त्वचा खुश्क हो जाती है। 

मातम के दौरान धर्मिक अक़ीदा का अत्याध्कि महत्व है। यदि किसी व्यक्ति की सोच में अक़ीदा नहीं है और वह मातम की पहल करता है तो उसके शरीर पर जख्म भी बन जाते हैं। पहले जहां मोहर्रम के मातम से केवल शिया समुदाय के लोगों का जुड़ाव रहता था, वहीं अब दूसरे मुस्लिम समुदाय भी हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद करने के लिए नई बस्ती स्थित करबला में इकट्ठा होने लगे हैं। अंगारों पर चलते हुए मातम मनाने के पीछे यही भाव छिपा है कि युवा मातम के अंतिम दिन अपने को हजरत इमाम हुसैन की तरह ही इस्लाम और इंसानियत के लिए कुरबान करने की सीख लें।

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